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ख़िज़ाँ के होश किसी रोज़ मैं उड़ाता हुआ - इमरान हुसैन आज़ाद कविता - Darsaal

ख़िज़ाँ के होश किसी रोज़ मैं उड़ाता हुआ

ख़िज़ाँ के होश किसी रोज़ मैं उड़ाता हुआ

तुम्हें दिखूंगा यक़ीनन बहार लाता हुआ

तमाम वार मिरी रूह पर थे लेकिन मैं

तमाम उम्र फिरा जिस्म को बचाता हुआ

ख़ुशी से करना रवाना मिरे मकाँ मुझ को

मैं हार जाऊँ अगर वहशतें हराता हुआ

बहुत उदास अकेला हमेशा लौटा क्यूँ

फ़लक पे जो भी दिखा मुझ को जगमगाता हुआ

मुझे बुलाने मकाँ आ न जाए सहरा तक

मैं घर से आया तो हूँ नक़्श-ए-पा मिटाता हुआ

तुम्हारी याद है बिखरी पड़ी कई दिन से

लरज़ रहा हूँ मैं अपने ही घर में आता हुआ

है इक ग़रीब के बच्चे सी ज़िंदगी अपनी

ख़ुशी का पर्व भी गुज़रे जिसे रुलाता हुआ

ये तेरे लम्स का जादू है या वफ़ा मेरी

बदन से आ गया बाहर गले लगाता हुआ

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