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कोई मेरा इमाम था ही नहीं - इमरान आमी कविता - Darsaal

कोई मेरा इमाम था ही नहीं

कोई मेरा इमाम था ही नहीं

मैं किसी का ग़ुलाम था ही नहीं

तुम कहाँ से ये बुत उठा लाए

इस कहानी में राम था ही नहीं

जिस क़दर शोर-ए-आब-ओ-गिल था यहाँ

उस क़दर एहतिमाम था ही नहीं

इस लिए साध ली थी चुप मैं ने

इस से बेहतर कलाम था ही नहीं

हम ने उस वक़्त भी मोहब्बत की

जब मोहब्बत का नाम था ही नहीं

तू कहाँ रास्ते में आ गई है

ज़िंदगी तुझ से काम था ही नहीं

वक़्त ने ला खड़ा किया उस जा

जो हमारा मक़ाम था ही नहीं

इस लिए ख़ास कर दिया गया इश्क़

आम लोगों का काम था ही नहीं

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