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एहतियातन उसे छुआ नहीं है - इमरान आमी कविता - Darsaal

एहतियातन उसे छुआ नहीं है

एहतियातन उसे छुआ नहीं है

आदमी है कोई ख़ुदा नहीं है

दश्त में आते जाते रहते हैं

ये हमारे लिए नया नहीं है

तुम समझते हो नाख़ुदा ख़ुद को

तुम पे दरिया अभी खुला नहीं है

जिस का हल सोचने में वक़्त लगे

वो मोहब्बत है मसअला नहीं है

बाग़ पर शेर कहने वालों का

एक मिस्रा हरा-भरा नहीं है

रेत ही रेत है तह-ए-दरिया

यानी सहरा अभी मिरा नहीं है

आओ चलते हैं अब ख़ला की तरफ़

सुन रहे हैं वहाँ ख़ला नहीं है

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