बात दिल को मिरे लगी नहीं है
बात दिल को मिरे लगी नहीं है
मेरे भाई ये शाएरी नहीं है
जानती है मिरे चराग़ की लौ
कौन से घर में रौशनी नहीं है
वो तअल्लुक़ भी मुस्तक़िल नहीं था
ये मोहब्बत भी दाइमी नहीं है
मैं जो क़िस्सा सुना चुका तो खुला
कोई दीवार बोलती नहीं है
देखने वाली आँख भी तो हो
कौन दरिया में जल-परी नहीं है
बुज़दिला छुप के वार करता है
तुझ को तहज़ीब-ए-दुश्मनी नहीं है
क्या करूँ इस बहिश्त को जिस में
एक बोतल शराब की नहीं है
तुझ से मिलना भी है नहीं भी मुझे
और तबीअत उलझ रही नहीं है
कौन से शहर के चराग़ हो तुम
तुम में दम भर की रौशनी नहीं है
जिस का चर्चा है शहर में 'आमी'
वो ग़ज़ल तो अभी कही नहीं है
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