इबादत ख़ुदा की ब-उम्मीद-ए-हूर
मगर तुझ को ज़ाहिद हया कुछ नहीं
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जान कर 'मीर' का कलाम 'असर'
बनाते हैं हज़ारों ज़ख़्म-ए-ख़ंदाँ ख़ंजर-ए-ग़म से
अब जहाँ पर है शैख़ की मस्जिद
साथ दुनिया का नहीं तालिब-ए-दुनिया देते
तेरी जानिब से मुझ पे क्या न हुआ
शैख़ के हाल पर तअस्सुफ़ है
बहे साथ अश्क के लख़्त-ए-जिगर तक
सूली चढ़े जो यार के क़द पर फ़िदा न हो
क्यूँ देखिए न हुस्न-ए-ख़ुदा-दाद की तरफ़
कैसा आना कैसा जाना मेरे घर क्या आओगे
मर ही कर उट्ठेंगे तेरे दर से हम