आइना देख के फ़रमाते हैं
किस ग़ज़ब की है जवानी मेरी
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अब जहाँ पर है शैख़ की मस्जिद
तुम्हारे आशिक़ों में बे-क़रारी क्या ही फैली है
साथ दुनिया का नहीं तालिब-ए-दुनिया देते
क़ैद-ए-तन से रूह है नाशाद क्या
गुलशन में कौन बुलबुल-ए-नालाँ को दे पनाह
महफ़िल में उस पे रात जो तू मेहरबाँ न था
करता है ऐ 'असर' दिल-ए-ख़ूँ-गश्ता का गिला
बनाते हैं हज़ारों ज़ख़्म-ए-ख़ंदाँ ख़ंजर-ए-ग़म से
कुछ समझ कर उस मह-ए-ख़ूबी से की थी दोस्ती
दिल की हालत से ख़बर देती है
हसीनों की जफ़ाएँ भी तलव्वुन से नहीं ख़ाली
शैख़ के हाल पर तअस्सुफ़ है