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यूँही उलझी रहने दो क्यूँ आफ़त सर पर लाते हो - इम्दाद इमाम असर कविता - Darsaal

यूँही उलझी रहने दो क्यूँ आफ़त सर पर लाते हो

यूँही उलझी रहने दो क्यूँ आफ़त सर पर लाते हो

दिल की उलझन बढ़ती है जब ज़ुल्फ़ों को सुलझाते हो

छुप छुप कर तुम रात को साहिब ग़ैरों के घर जाते हो

कैसी है ये बात कहो तो क्यूँ-कर मुँह दिखलाते हो

सुनते हो कब बात किसी की अपनी हट पर रहते हो

हज़रत-ए-दिल तुम अपने किए पर आख़िर को पछताते हो

मुद्दत पर तो आए हो हम देख लें तुम को जी भर के

आए हो तो ठहरो साहिब रोज़ यहाँ क्या आते हो

कैसा आना कैसा जाना मेरे घर क्या आओगे

ग़ैरों के घर जाने से तुम फ़ुर्सत किस दिन पाते हो

आँखें झपकी जाती हैं मतवाली की सी सूरत है

जागे किस की सोहबत में जो नींद के इतने माते हो

दिल से 'असर' क्या कहते हो है जान का सौदा इश्क़-ए-बुताँ

तुम भी तो दीवाने हो दीवाने को समझाते हो

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