यूँही उलझी रहने दो क्यूँ आफ़त सर पर लाते हो
यूँही उलझी रहने दो क्यूँ आफ़त सर पर लाते हो
दिल की उलझन बढ़ती है जब ज़ुल्फ़ों को सुलझाते हो
छुप छुप कर तुम रात को साहिब ग़ैरों के घर जाते हो
कैसी है ये बात कहो तो क्यूँ-कर मुँह दिखलाते हो
सुनते हो कब बात किसी की अपनी हट पर रहते हो
हज़रत-ए-दिल तुम अपने किए पर आख़िर को पछताते हो
मुद्दत पर तो आए हो हम देख लें तुम को जी भर के
आए हो तो ठहरो साहिब रोज़ यहाँ क्या आते हो
कैसा आना कैसा जाना मेरे घर क्या आओगे
ग़ैरों के घर जाने से तुम फ़ुर्सत किस दिन पाते हो
आँखें झपकी जाती हैं मतवाली की सी सूरत है
जागे किस की सोहबत में जो नींद के इतने माते हो
दिल से 'असर' क्या कहते हो है जान का सौदा इश्क़-ए-बुताँ
तुम भी तो दीवाने हो दीवाने को समझाते हो
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