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ठिकाना है कहीं जाएँ कहाँ नाचार बैठे हैं - इम्दाद इमाम असर कविता - Darsaal

ठिकाना है कहीं जाएँ कहाँ नाचार बैठे हैं

ठिकाना है कहीं जाएँ कहाँ नाचार बैठे हैं

इजाज़त जब नहीं दर की पस-ए-दीवार बैठे हैं

ये मतलब है कि महफ़िल में मनाए और मन जाएँ

वो मेरे छेड़ने को ग़ैर से बेज़ार बैठे हैं

ख़रीदार आ रहे हैं हर तरफ़ से नक़्द-ए-जाँ ले कर

वो यूसुफ़ बन के बिकने को सर-ए-बाज़ार बैठे हैं

अचानक ले न लूँ बोसा ये खटका उन के दिल में है

मिरे पहलू में बैठे हैं मगर होश्यार बैठे हैं

तुम्हारे आशिक़ों में बे-क़रारी क्या ही फैली है

जिधर देखो जिगर थामे हुए दो-चार बैठे हैं

क़यामत है सितम मुर्दे पे भी उन को गवारा है

मिरा लाशा उठाने के लिए अग़्यार बैठे हैं

लब-ए-बाम आ के दिखला वो तमाशा तूर का तुम भी

बड़े मौक़े से दर पर तालिब-ए-दीदार बैठे हैं

'असर' क्यूँ-कर न जानूँ उस के दर को क़िब्ला-ए-आलम

उसी जानिब कई रुख़ काफ़िर ओ दीं-दार बैठे हैं

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