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सुब्ह-दम रोती जो तेरी बज़्म से जाती है शम्अ - इम्दाद इमाम असर कविता - Darsaal

सुब्ह-दम रोती जो तेरी बज़्म से जाती है शम्अ

सुब्ह-दम रोती जो तेरी बज़्म से जाती है शम्अ

साफ़ मेरे सोज़-ए-ग़म का रंग दिखलाती है शम्अ

जिस तरह काले के मन के रू-ब-रू गुल हो चराग़

देख कर तावीज़-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार बुझ जाती है शम्अ

सिर्फ़ परवाना अदब से दम-ब-ख़ुद रहता नहीं

तेरे रोब-ए-हुस्न से महफ़िल में थर्राती है शम्अ

घेर लेते हैं तुझे परवाने उस को छोड़ कर

जिस में तू हो कब फ़रोग़ उस बज़्म में पाती है शम्अ

कारबंद-ए-अद्ल होते हैं जो हैं रौशन-दिमाग़

बज़्म में हर सम्त यकसाँ नूर पहुँचाती है शम्अ

पर्दा-ए-फ़ानुस से बाहर नहीं रखती क़दम

रू-ब-रू तेरे रुख़-ए-रौशन के शरमाती है शम्अ

जा-ए-गिर्या सोहबत-ए-अहल-ए-तमाशा है 'असर'

है बजा रोती हुई जो बज़्म में आती है शम्अ

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