सुब्ह-दम रोती जो तेरी बज़्म से जाती है शम्अ
सुब्ह-दम रोती जो तेरी बज़्म से जाती है शम्अ
साफ़ मेरे सोज़-ए-ग़म का रंग दिखलाती है शम्अ
जिस तरह काले के मन के रू-ब-रू गुल हो चराग़
देख कर तावीज़-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार बुझ जाती है शम्अ
सिर्फ़ परवाना अदब से दम-ब-ख़ुद रहता नहीं
तेरे रोब-ए-हुस्न से महफ़िल में थर्राती है शम्अ
घेर लेते हैं तुझे परवाने उस को छोड़ कर
जिस में तू हो कब फ़रोग़ उस बज़्म में पाती है शम्अ
कारबंद-ए-अद्ल होते हैं जो हैं रौशन-दिमाग़
बज़्म में हर सम्त यकसाँ नूर पहुँचाती है शम्अ
पर्दा-ए-फ़ानुस से बाहर नहीं रखती क़दम
रू-ब-रू तेरे रुख़-ए-रौशन के शरमाती है शम्अ
जा-ए-गिर्या सोहबत-ए-अहल-ए-तमाशा है 'असर'
है बजा रोती हुई जो बज़्म में आती है शम्अ
(809) Peoples Rate This