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ग़म नहीं मुझ को जो वक़्त-ए-इम्तिहाँ मारा गया - इम्दाद इमाम असर कविता - Darsaal

ग़म नहीं मुझ को जो वक़्त-ए-इम्तिहाँ मारा गया

ग़म नहीं मुझ को जो वक़्त-ए-इम्तिहाँ मारा गया

ख़ुश हूँ तेरे हाथ से ऐ जान-ए-जाँ मारा गया

तेग़-ए-अबरू से दिल-ए-आशिक़ को मिलती क्या पनाह

जो चढ़ा मुँह पर अजल के बे-गुमाँ मारा गया

मंज़िल-ए-माशूक़ तक पहुँचा सलामत कब कोई

रहज़नों से कारवाँ का कारवाँ मारा गया

दोस्ती की तुम ने दुश्मन से अजब तुम दोस्त हो

मैं तुम्हारी दोस्ती में मेहरबाँ मारा गया

ज़हर से कुछ कम न थी दावत मिरी ग़ैरों के साथ

क्या ग़ज़ब है घर बला कर मेहमाँ मारा गया

दश्त-ए-ग़ुर्बत रंज-ए-तन्हाई हुजूम-ए-दर्द-ओ-यास

इन बलाओं में तिरा आशिक़ कहाँ मारा गया

क्या हलाक-ए-इश्क़ तेरे गेसुओं का था 'असर'

सुंबुलिस्ताँ हो गया है दो-जहाँ मारा गया

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