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ज़ोर है गर्मी-ए-बाज़ार तिरे कूचे में - इमाम बख़्श नासिख़ कविता - Darsaal

ज़ोर है गर्मी-ए-बाज़ार तिरे कूचे में

ज़ोर है गर्मी-ए-बाज़ार तिरे कूचे में

जम्अ हैं तेरे ख़रीदार तिरे कूचे में

देख कर तुझ को क़दम उठ नहीं सकता अपना

बन गए सूरत-ए-दीवार तिरे कूचे में

पाँव फैलाए ज़मीं पर मैं पड़ा रहता हूँ

सूरत-ए-साय-ए-दीवार तिरे कूचे में

गो तू मिलता नहीं पर दिल के तक़ाज़े से हम

रोज़ हो आते हैं सौ बार तिरे कूचे में

एक हम हैं कि क़दम रख नहीं सकते वर्ना

एँडते फिरते हैं अग़्यार तिरे कूचे में

पासबानों की तरह रातों को बे-ताबी से

नाले करते हैं हम ऐ यार तिरे कूचे में

आरज़ू है जो मरूँ मैं तो यहीं दफ़्न भी हूँ

है जगह थोड़ी सी दरकार तिरे कूचे में

गर यही हैं तिरे अबरू के इशारे क़ातिल

आज-कल चलती है तलवार तिरे कूचे में

हाल-ए-दिल कहने का 'नासिख़' जो नहीं पाता बार

फेंक जाता है वो अशआर तिरे कूचे में

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