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रिफ़अत कभी किसी की गवारा यहाँ नहीं - इमाम बख़्श नासिख़ कविता - Darsaal

रिफ़अत कभी किसी की गवारा यहाँ नहीं

रिफ़अत कभी किसी की गवारा यहाँ नहीं

जिस सर-ज़मीं के हम हैं वहाँ आसमाँ नहीं

दो रोज़ एक वज़्अ पे रंग-ए-जहाँ नहीं

वो कौन सा चमन है कि जिस को ख़िज़ाँ नहीं

इबरत की जा है लाखों ही तिफ़्ल ओ जवाँ नहीं

पीरी में भी ख़याल अजल का यहाँ नहीं

दुश्मन अगर वो दोस्त हुआ है तो क्या अजब

याँ ए'तिमाद-ए-दोस्ती-ए-जिस्म-ओ-जाँ नहीं

रफ़्तार नाज़ में ये लचक जाती है कि बस

गोया तिरी कमर में सनम उस्तुखाँ नहीं

मुनइम के शुक्र में भी हिलाएँ कभी कभी

तन्हा बराए-लज़्ज़त-ए-दुनिया ज़बाँ नहीं

पज़मुर्दा एक है तो शगुफ़्ता है दूसरा

बाग़-ए-जहाँ में फ़स्ल-ए-बहार-ओ-ख़िज़ाँ नहीं

जिन के सुरों पर आप मगस-राँ रहे हुमा

उन का लहद में आज कोई उस्तुखाँ नहीं

धोका न खा ज़ुरूफ़-ए-वज़ू को तू देख कर

मस्जिद है मय-फ़रोश की 'नासिख़' दुकाँ नहीं

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