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मिरा सीना है मशरिक़ आफ़्ताब-ए-दाग़-ए-हिज्राँ का - इमाम बख़्श नासिख़ कविता - Darsaal

मिरा सीना है मशरिक़ आफ़्ताब-ए-दाग़-ए-हिज्राँ का

मिरा सीना है मशरिक़ आफ़्ताब-ए-दाग़-ए-हिज्राँ का

तुलू-ए-सुब्ह-ए-महशर चाक है मेरे गरेबाँ का

अज़ल से दुश्मनी ताऊस ओ मार आपस में रखते हैं

दिल-ए-पुर-दाग़ को क्यूँकर है इश्क़ उस ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ का

किसी ख़ुर्शीद-रू को जज़्ब-ए-दिल ने आज खींचा है

कि नूर-ए-सुब्ह-ए-सादिक़ है ग़ुबार अपने बयाबाँ का

चमकना बर्क़ का लाज़िम पड़ा है अब्र-ए-बाराँ में

तसव्वुर चाहिए रोने में उस के रू-ए-ख़ंदाँ का

दिया मेरे जनाज़े को जो कांधा उस परी-रू ने

गुमाँ है तख़्ता-ए-ताबूत पर तख़्त-ए-सुलैमाँ का

किसी से दिल न इस वहशत-सरा में मैं ने अटकाया

न उलझा ख़ार से दामन कभी मेरे बयाबाँ का

तह-ए-मशीर-ए-क़ातिल किस क़दर बश्शाश था 'नासिख़'

कि आलम हर दहान-ए-ज़ख़्म पर है रू-ए-ख़ंदाँ का

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