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हैं अश्क मिरी आँखों में क़ुल्ज़ुम से ज़्यादा - इमाम बख़्श नासिख़ कविता - Darsaal

हैं अश्क मिरी आँखों में क़ुल्ज़ुम से ज़्यादा

हैं अश्क मिरी आँखों में क़ुल्ज़ुम से ज़्यादा

हैं दाग़ मिरे सीने में अंजुम से ज़्यादा

सौ रम्ज़ की करता है इशारे में वो बातें

है लुत्फ़ ख़मोशी में तकल्लुम से ज़्यादा

जुज़ सब्र दिला चारा नहीं इश्क़-ए-बुताँ में

करते हैं ये ज़ुल्म और तज़ल्लुम से ज़्यादा

मय-ख़ाने में सौ मर्तबा मैं मर के जिया हूँ

है क़ुलक़ुल-ए-मीना मुझे क़ुम-क़ुम से ज़्यादा

सौ रक़्स से अफ़्ज़ूँ है परी-रू तिरी रफ़्तार

पाँव की सदा लाख तरन्नुम से ज़्यादा

तकलीफ़-ए-तकल्लुफ़ से किया इश्क़ ने आज़ाद

मू-ए-सर-ए-शोरीदा हैं क़ाक़ुम से ज़्यादा

माशूक़ों से उम्मीद-ए-वफ़ा रखते हो 'नासिख़'

नादाँ कोई दुनिया में नहीं तुम से ज़्यादा

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