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है मोहब्बत सब को उस के अबरू-ए-ख़मदार की - इमाम बख़्श नासिख़ कविता - Darsaal

है मोहब्बत सब को उस के अबरू-ए-ख़मदार की

है मोहब्बत सब को उस के अबरू-ए-ख़मदार की

हिन्द में क्या आबरू बाक़ी रही तलवार की

वस्ल की शब चाँदनी दीवार से जाने न पाए

मिन्नतें करता हूँ हर ख़ार-ए-सर-ए-दीवार की

उस्तुरा फिरने से रू-ए-यार पर है दौर-ए-ख़त

चाल उस कम-बख़्त ने सीखी है क्या परकार की

नश्शा-ए-मय का गुमाँ करने लगा वो बद-गुमाँ

देख कर सुर्ख़ी हमारे दीदा-ए-ख़ूँ-बार की

घर भी मेरा मुंतज़िर है यार का मेरी तरह

रौज़न-ए-दर में है सूरत दीदा-ए-बेदार की

कहते हो हम ख़्वाब में आते जो तू सोता कभी

ख़ूब की बर्बाद मेहनत दीदा-ए-बेदार की

बाग़-ए-आलम में कहाँ है कोई मुझ सा रहम-दिल

रोज़ करता हूँ अयादत नर्गिस-ए-बीमार की

दाग़-ए-सर हैं जोश-ए-सौदा में ब-रंग-ए-गुल मुझे

मिस्ल-ए-गुलबुन पाँव में कब है शिकायत ख़ार की

वो ख़ुदा का दोस्त है और दोस्त है उस का ख़ुदा

क्यूँ न हो 'नासिख़' मोहब्बत हैदर-ए-कर्रार की

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