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दिल में पोशीदा तप-ए-इश्क़-ए-बुताँ रखते हैं - इमाम बख़्श नासिख़ कविता - Darsaal

दिल में पोशीदा तप-ए-इश्क़-ए-बुताँ रखते हैं

दिल में पोशीदा तप-ए-इश्क़-ए-बुताँ रखते हैं

आग हम संग की मानिंद निहाँ रखते हैं

ताज़गी है सुख़न-ए-कुहना में ये बाद-ए-वफ़ात

लोग अक्सर मिरे जीने का गुमाँ रखते हैं

भा गई कौन सी वो बात बुतों की वर्ना

न कमर रखते हैं काफ़िर न दहाँ रखते हैं

मिस्ल-ए-परवाना नहीं कुछ ज़र-ओ-माल अपने पास

हम फ़क़त तुम पे फ़िदा करने को जाँ रखते हैं

महफ़िल-ए-यार में कुछ बात न निकली मुँह से

कहने को शम्अ की मानिंद ज़बाँ रखते हैं

हो गया ज़र्द पड़ी जिस की हसीनों पे नज़र

ये अजब गुल हैं कि तासीर-ए-ख़िज़ाँ रखते हैं

एवज़-ए-मुल्क-ए-जहाँ मुल्क-ए-सुख़न है 'नासिख़'

गो नहीं हुक्म-ए-रवाँ तब्अ-ए-रवाँ रखते हैं

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