हर तरफ़ इक जंग का माहौल है 'आज़म' यहाँ
आदमी अब घर के भी अंदर सलामत है कहाँ
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किसी की बात कोई बद-गुमाँ न समझेगा
मौसम सूखा सूखा सा था लेकिन ये क्या बात हुई
शहर में ओले पड़े हैं सर सलामत है कहाँ
आस्था का रंग आ जाए अगर माहौल में
दुनिया की इक रीत पुरानी, मिलना और बिछड़ना है
टिमटिमाता हुआ मंदिर का दिया हो जैसे
क़द बढ़ाने के लिए बौनों की बस्ती में चलो
जो मज़े आज तिरे ग़म के अज़ाबों में मिले
तेरी ख़ुशबू से मोअत्तर है ज़माना सारा
उन के रुख़्सत का वो लम्हा मुझे यूँ लगता है
सूरज की मीज़ान लिए हम, वो थे बर्फ़ की बाट लिए
गेसू ओ रुख़्सार की बातें करें