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राखी बंधन - इमाम अाज़म कविता - Darsaal

राखी बंधन

ज़िंदगी के कई मेआर हैं

वरक़ वरक़

इक रुख़-ए-एहसास को

फ़ितरी और मसनूई सतह पर बाँटना

अपने और पराए को

दो दाएरों में तक़्सीम करना

या बारूद के धमाकों में

ज़मीन को टुकड़े टुकड़े करना

ज़िंदगी बराए ज़िंदगी को मानने वाले

वक़्त का कोहरा छटते ही

आस्था के अक्स फैला देते हैं

पागल ख़याल की शिद्दत घट जाती है

उस पल शाख़-दर-शाख़

फैलने वाली ख़ुशबू

किसी अजनबी कलाई पर

एक राखी बाँध देती है

पल भर में कड़वी सच्चाइयाँ

रिश्तों की तमाम हदें तोड़ कर

भाई बहन के रिश्ते में बदल जाती हैं

ज़ेहन में मौजूद तमाम तल्ख़ियाँ

ख़ुशनुमा एहसास में

ख़ुद-बख़ुद ढल जाती हैं

'इमाम-आज़म' की दुआ है

बे-मिसाल रिश्ते का ये बंधन

सदा क़ाएम रहे

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