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तुम्हारे जाते ही हर चश्म-ए-तर को देखते हैं - इमाम अाज़म कविता - Darsaal

तुम्हारे जाते ही हर चश्म-ए-तर को देखते हैं

तुम्हारे जाते ही हर चश्म-ए-तर को देखते हैं

है आँसुओं का समुंदर जिधर को देखते हैं

'फ़राज़' हो गए रुख़्सत जहान-ए-फ़ानी से

उदास उदास सुख़न के सफ़र को देखते हैं

कहाँ वो इश्क़-ए-जवाँ की ठहर गईं किरनें

रुकी रुकी हुई बाद-ए-सहर को देखते हैं

सुना है 'फ़ैज़' से आगे निकल गए थे 'फ़राज़'

ग़ज़ल के सोज़-ए-दरूँ के असर को देखते हैं

सुना है उस ने ग़ज़ल का बदल दिया लहजा

सभी 'फ़राज़' के फ़िक्र-ओ-नज़र को देखते हैं

सुना है उस की ग़ज़ल आइना थी हस्ती का

इसी लिए तो हम उस आईना-गर को देखते हैं

सजाया उस ने हुनर से जो अपनी ग़ज़लों को

सुना है लोग अब उस के हुनर को देखते हैं

कहाँ 'फ़राज़' कहाँ 'आज़म'-ए-शिकस्ता-जाँ

ज़रा सा चल के हम उस की डगर को देखते हैं

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