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शहर में ओले पड़े हैं सर सलामत है कहाँ - इमाम अाज़म कविता - Darsaal

शहर में ओले पड़े हैं सर सलामत है कहाँ

शहर में ओले पड़े हैं सर सलामत है कहाँ

इस क़दर है तेज़ आँधी घर सलामत है कहाँ

रात ने ऐसी सियाही अब बिखेरी चार-सू

आँख वालों के लिए मंज़र सलामत है कहाँ

आप कहते हैं छुपा लूँ अपनी उर्यानी मगर

जिस्म से लिपटी हुई चादर सलामत है कहाँ

क़ुलक़ुल-ए-मीना से अपनी प्यास तो बुझती नहीं

चूर सब शीशे हुए साग़र सलामत है कहाँ

रेज़ा रेज़ा हो गई हर शख़्स की पाकीज़गी

संग-सारी के लिए पत्थर सलामत है कहाँ

कोई चेहरा अस्ल सूरत में रहे बाक़ी तो क्यूँ

बुत-शिकन के अहद में आज़र सलामत है कहाँ

हर तरफ़ इक जंग का माहौल है 'आज़म' यहाँ

आदमी अब घर के भी अंदर सलामत है कहाँ

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