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किसी की बात कोई बद-गुमाँ न समझेगा - इमाम अाज़म कविता - Darsaal

किसी की बात कोई बद-गुमाँ न समझेगा

किसी की बात कोई बद-गुमाँ न समझेगा

ज़मीं का दर्द कभी आसमाँ न समझेगा

समुंदरों पे जो चलता रहा है बे-मक़्सद

कहाँ हैं पाँव के नक़्श-ओ-निशाँ न समझेगा

उसे जुनून है लफ़्ज़ों से खेलने का बहुत

हमारी सादा सी लेकिन ज़बाँ न समझेगा

ये सब हैं अहल-ए-सियासत इन्ही की साज़िश है

यही है सच जिसे सारा जहाँ न समझेगा

जो मेरी ज़ाहिरी सूरत से खा रहा है फ़रेब

यक़ीन जानिए दर्द-ए-निहाँ न समझेगा

मता-ए-लौह-ओ-क़लम लूटता रहा है जो

लहू-लुहान हैं क्यूँ उँगलियाँ न समझेगा

कमाल-ए-ज़ब्त के बा-वस्फ़ कोई भी 'आज़म'

ये कैसे फट गया आतिश-फ़िशाँ न समझेगा

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