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जो मज़े आज तिरे ग़म के अज़ाबों में मिले - इमाम अाज़म कविता - Darsaal

जो मज़े आज तिरे ग़म के अज़ाबों में मिले

जो मज़े आज तिरे ग़म के अज़ाबों में मिले

ऐसी लज़्ज़त कहाँ साक़ी की शराबों में मिले

सारी दुनिया से नहीं उन को है पर्दा लेकिन

वो मिले जब भी मिले मुझ को नक़ाबों में मिले

तेरी ख़ुशबू से मोअत्तर है ज़माना सारा

कैसे मुमकिन है वो ख़ुशबू भी गुलाबों में मिले

ज़िंदगानी में नसीहत नहीं काम आती है

दर्स-ए-अख़्लाक़ फ़क़त मुझ को किताबों में मिले

मैं ने फूलों से भी नाज़ुक से सवालात किए

मुझ को पत्थर से ही अल्फ़ाज़ जवाबों में मिले

प्यार के बाब में अब नाम कहाँ है तेरा

कोई तहरीर-ए-वफ़ा कैसे निसाबों में मिले

क्या पता कल जो बड़ी शान में गुम था 'आज़म'

अब वही शख़्स तुझे ख़ाना-ख़राबों में मिले

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