प्रीत-नगर की रीत नहीं है ऐसा ओछा-पन बाबा
प्रीत-नगर की रीत नहीं है ऐसा ओछा-पन बाबा
इतनी सुध-बुध किस को यहाँ जो सोचे तन-मन-धन बाबा
उन की कोई ठोर नहीं है साँझ कहीं हैं भोर कहीं
प्रीत के रोगे बंजारे हैं बस्ती हो या बन बाबा
लाख जतन से जुड़ न सकेगा पहले बताए देते हैं
टूट गया तो टूट गया बस मन का ये दर्पन बाबा
उस की बालक-हट के आगे घर छोड़ा बैराग लिया
देखें क्या दिन दिखलाता है अब ये मूरख मन बाबा
बीन जो अपने पास न होती हम जोगी भी भटक जाते
क्या क्या रूप बदल कर आई माया की नागन बाबा
हम जो मगन हैं ध्यान में अपने उस को भी धोका जानो
किस से सुलझी साँस के ताने-बाने की उलझन बाबा
अब दुख-सुख का भेद बताने आए हो जब 'इश्क़ी' का
प्रीत धर्म है प्रीत करम है प्रीत से है जीवन पाया
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