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ज़ीस्त-मिज़ाजों का नौहा - इलियास बाबर आवान कविता - Darsaal

ज़ीस्त-मिज़ाजों का नौहा

रेशा-ए-अश्क पे टाँके हुए हम बर्ग-ए-मलाल

क़र्या-ए-वहशत ओ उफ़्ताद में हैं ख़ेमा-ब-दोश

अपने हिस्से की जहाँगीरी उठा लाए हैं

क्या ख़बर कौन नज़र तुर्फ़ा मसीहाई हो

कौन सा ज़हर तिरे हिज्र का तिरयाक़ बने

बस इसी कार-ए-फ़राग़त पे है मामूर ये दिल

जिस पे खुलते नहीं असरार-ए-तअ'ल्लुक़ न मिज़ाज

अपनी ही धन में सुबुक-ख़ेज़ चला जाता है

एक अंदेशा-ए-ईजाज़-ए-तलातुम की तरफ़

जिस की तहज़ीब पे तहरीर हैं नामे तेरे

साहिरा देख कभी ज़ीस्त-मिज़ाजों की तरफ़

देख क्या रंग तिरे ख़ाक-नशीनों का हुआ

पर तुझे फ़ुर्सत-ए-नज़्ज़ारा-ए-ख़ाशाक नहीं

तेरी आँखों में फ़रोज़ाँ है सितारों का वफ़ूर

हम कि बे-नूर चराग़ों के ख़राशीदा बदन

अपनी ही लौ की सख़ावत से जले बैठे हैं

हम जहाँगीर-मिज़ाजों में लुटे बैठे हैं

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