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स्कैप-इज़्म - इलियास बाबर आवान कविता - Darsaal

स्कैप-इज़्म

चल कि सद-चाक-ए-गरेबाँ वहाँ हो आते हैं

ये जो हंगामा-ए-हस्ती है ज़रा देर को छोड़

एक बे-अंत मसाफ़त के उधर बैठते हैं

याद करते हैं परी-ख़ानों की तलख़ाबी को

अपनी आज़ुर्दा तमन्नाओं पे रो लेते हैं

गर्द में रक्खे हुए अश्क फ़सुर्दा चेहरे

गए वक़्तों का तज़ब्ज़ुब नए वक़्तों का अज़ाब

आ कि शानों से गिरा आते हैं उस पार कहीं

इस से पहले कि यहाँ सैल-ए-फ़ना आ निकले

नाम लेता हुआ दोनों का उसी शोर के बीच

वक़्त के पार जहाँ-ज़ाद की दहलीज़ के साथ

अश्क रोते हैं मसाफ़त का भरम रखते हैं

चल कि सद-चाक-ए-गरेबाँ वहाँ हो आते हैं

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