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पागल - इलियास बाबर आवान कविता - Darsaal

पागल

देख नी माय?

सुंदर माथे की रेखाएँ

तेरे हाथ की रेखाओं से मिलती-जुलती

उत्तर दक्खिन पूरब पच्छिम एक सफ़र है टांवाँ टांवाँ

देख गुलाबी आग पे सेंकी

डब खड़बी रोटी जैसा चेहरा मेरा

देख नी माय

सरसों जैसे हाथ थे मेरे

हरे हरे कंगन की चुन्नी

गीटा गीटा बालन चुनना इन को महँगा पड़ जाएगा

कब सोचा था

दीवारों पर गारा मिलते

हाथ अधूरे रह जाएँगे

आधे आधे लोगों अंदर पूरे ख़्वाब मशक़्क़त जैसे

काहे काट सके है कोई

इतना तो बतलाया होता

देख नी माय!

कीकर की शाख़ों सी बातें

रोज़ निगलनी पड़ जाएँ तो

हंडिया कच्ची रह जाती है

हंडिया कच्ची रह जाए तो पक्के लफ़्ज़ हथौड़ा बन कर

मन का कचला कर देते हैं

टाट का पैवंद आँख में हो तो

रेशम थोड़ा पड़ जाता है

साँस की पूनी पुनते पुनते

जीवन आधा रह जाता है

उपलों की दीवारें इक दिन

जिस्म के भीतर दर आ जाती है

सहन का शीशम पेंग के मौसम से पहले मुरझा जाता है

बाँहें झूला बन जाती हैं

ग़म को पंखी झलते झलते

सारी बातें मन अंदर की कचरा घाटी बन जाती हैं

आवाज़ों की इस दुनिया में

तन्हा बातें करते करते

बंदा रोगी हो जाता है

सर की चाँदी में नाली का तेल चपड़ कर

नश्शा करने वाले जोगी

प्यास बुझाने आ जाते हैं

मुश्क का बालन बन जाता है

और फिर दुनिया नाम बदल कर कैसे पागल कर देती है!

देख नी माय!

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