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मस्जिद-ए-अहमरीं - इलियास बाबर आवान कविता - Darsaal

मस्जिद-ए-अहमरीं

मैं मस्जिद-ए-अहमरीं के दामन पे सब्त पत्थर

नवाह-ए-हैरत-कदा तिलिस्मात-ए-आफ़ियत था

न मेरा फ़िक्र-ओ-नज़र से रिश्ता न मेरा ईहाम-गोई शेवा

फ़क़त मैं शाहिद इबादतों से चमकते लम्हों की दास्ताँ का

दरून-ए-मस्जिद खड़े मनारे अज़ान देते

तो वादी-ए-इश्क़ से तुलूअ' नमाज़ होती

इमाम और मुक़तदी सफ़ीरान-अहल-ए-ईमाँ

हुज़ूर-याबी की नुदरतों से कलाम करते सलाम करते

मैं मस्जिद-ए-अहमरीं के दामन पे सब्त पत्थर

गवाह-ए-अव्वल गवाह-ए-आख़िर हूँ उस ख़जिल लम्हा-ए-क़फ़स का

जब आइनों की रगों में ताज़ा लहू की हैरत

का ख़ूँ हुआ था

अजब तुलूअ' सहर हुई थी

फ़लक की सुर्ख़ी उतर के चश्म-ए-तपाँ में आई

चहार सम्तों में ख़ंदक़ें थीं

फ़ज़ा में रक़्साँ थी बू-ए-वहशत

दरून-ए-मस्जिद भी कलमा-गो थे

वो कलमा-गो थे कि जिन के हाथों में अस्लहा था

चहार जानिब घरों में क़ैदी थे

जिन के होंटों से बद-दुआएँ फिसल रही थीं

मैं क़ल्ब-ए-शहर-ए-सलाम अंदर

नम-ओ-तबस्सुम से आश्ना था मगर ये दिन थे

ख़जिल फ़सानों की बाज़याबी की सूरतों के

सफ़ीर आते सफ़ीर जाते बिलकते बच्चों की आह-ओ-ज़ारी

नहीफ़ लहजों की कपकपाहट समाअ'तों से उलझ रही थी

फ़ज़ा में था ख़ौफ़ धुँद जैसे

दरून-ए-मस्जिद वो अहल-ए-मिम्बर वो अहल-ए-जुब्बा

सिफ़ारतों की सबील-ए-मख़लूत में उलझ कर

सिरात-ए-अब्यज़ से हट गए थे

मैं डर गया था मैं मस्जिद-ए-अहमरीं के दामन पे सब्त पत्थर

मैं ईस्तादा हूँ अब भी लेकिन

न मस्जिद-ए-अहमरीं है वैसी न मुक़तदी हैं न तिफ़्ल-ओ-मादर

न अहल-ए-मिम्बर हैं जिन की तक़रीर ने फ़ज़ाओं का साँस खींचा

न शोरिशें शहर-ए-कलमा-गो में

मगर हक़ीक़त में क्या हुआ था

लहू मैं लुथड़ी सफ़ों से पूछो

चमन में मुर्दा सिफ़ारतों की शबीहें देखो

मैं मस्जिद-ए-अहमरीं के दामन पे सब्त पत्थर

कई ज़मानों से रो रहा हूँ

मुझे बसारत नहीं बसीरत से देखिएगा

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