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ख़्वाजा-सरा - इलियास बाबर आवान कविता - Darsaal

ख़्वाजा-सरा

रेशा रेशा गीत का गोटा हर इक अंग में रक़्स

साँस के भीतर कोयल बोले पंछी जैसा शख़्स

उँगली के छल्ले में राज कमल के गोरे पँख

हाए रे मोरी पीत निगोड़ी हाए रे मोरे पँख

गालों पर ग़ाज़े के पीछे दर्द के सूखे फूल

लचकीली बाँहों की शाख़ों पर नफ़रत की धूल

ठुमरी के बोलों में पिन्हाँ अकलापे का बैन

दिन आँखों में कट जाता है कैसे कटे ये रैन

क़ौस-ए-क़ुज़ह से पैराहन में सुंदर सुंदर जिस्म

होंटों की फिसलन पर गिरता पड़ता कोरा इस्म

काली काली क़िस्मत उन की नीले पीले ख़्वाब

इतने रंगों में अपनी पहचान भी एक अज़ाब

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