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ग़ैर-निसाबी तारीख़ - इलियास बाबर आवान कविता - Darsaal

ग़ैर-निसाबी तारीख़

शाही दरबार मैं ख़ादिम-ए-ख़ास का एलान

तख़लिया

रक़्स-ए-जुनूँ-ख़ेज़ पे नौ-ख़ेज़ बदन

शहर मैं आदम-ए-ख़ाकी कै लहू की क़ीमत

देने आए हैं महाराज के मयख़ाने मैं

रंग और नूर की बरसात के बीच

कौन देखेगा बे-सर की लाशें

नौ-बदन जाम-ए-तहय्युर का नया ज़ाइक़ा हैं

जन पे दो-लख़्त किए जाते हैं मुल्कों के बदन

शाही दरबार में महाराज का एलान

साहिबो

धुँद की तहज़ीब का प्रचार करो

जिन पर नारे हैं लिखे घर वो तह-ए-ख़ाक करो

शहर में गूँजे फ़क़त नग़्मा-ए-तौसीफ़-ए-रिया

हुर्मत-ए-हर्फ़ हो पाबंद-ए-शिकोह-ए-ऐवाँ

ज़िक्र मत हो कहीं जलते हुए ख़ियाम का बस

सिर्फ़ तारीख़ मैं चमके मिरा फ़रमान-ए-शही

शाही दरबार में वज़ीर-ए-बा-तदबीर का मशवरा

तख़लिया

साहिबो ये वक़्त है सरशारी का

फ़ैसले कल पे उठा रखते हैं मुस्तक़बिल के

इस समय शहर में बरपा करो जादू कोई

लोग मसरूफ़ रहें वक़्त गुज़र जाए बस

ख़ाक हो जाएँगी सदियाँ यूँही क़दमों के तले

शाही दरबार में महाराज का मुख़्बिर-ए-ख़ास को हुक्म

लहन-ए-सालार बता हाल ज़माने का मुझे

उस में बस मुझ को बता मेरी ख़बर की बाबत

मत सुना ख़स्ता ज़मानों की शिकस्ता बातें

लफ़्ज़ लिख मेरे लिए नोक-ए-क़लम से और फिर

शहर-भर में यही तारीख़ मुनादी कर दे

वक़्त के सारे मोअर्रिख़ करें बैअ'त उस की

फूल पर ख़ून नहीं था वो नम-ए-शबनम था

एक ख़ामोश रियाज़त थी अजल का चक्कर

बे-बदन ख़्वाब थे तहज़ीब का नौ-रफ़्ता-मिज़ाज

शाही दरबार से बाहर रेआ'या का मिज़ाज

दोस्तो यूँ ही सलामत रहे ऐवाँ का वक़ार

रिज़्क़ मलता रहे रा'नाई का आँखों को यूँही

यूँ ही बटती रहे ख़ैरात-ए-कफ़न गर्द-ए-यक़ीं

यूँ ही मिलती रहे क़ब्रों के लिए मुफ़्त ज़मीं

दोस्तो यूँ ही सलामत रहे ऐवाँ का वक़ार

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