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सिर्फ़ आज़ार उठाने से कहाँ बनता है - इलियास बाबर आवान कविता - Darsaal

सिर्फ़ आज़ार उठाने से कहाँ बनता है

सिर्फ़ आज़ार उठाने से कहाँ बनता है

मुझ सा उस्लूब ज़माने से कहाँ बनता है

आँख को काट के कुछ नोक-पलक सीधी की

ज़ाविया सीध में आने से कहाँ बनता है

कुछ न कुछ इस में हक़ीक़त भी छिपी होती है

वाक़िआ बात बनाने से कहाँ बनता है

हुस्न-ए-यूसुफ़ सी कोई जिंस भी रक्खो इस में

वर्ना बाज़ार सजाने से कहाँ बनता है

इस में कुछ वहशत-ए-दिल भी तो रखी जाती है

बाग़ बस फूल उगाने से कहाँ बनता है

रास्ता बनता है तश्कील-ए-नज़र से 'बाबर'

ख़ाक की ख़ाक उड़ाने से कहाँ बनता है

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