सिर्फ़ आज़ार उठाने से कहाँ बनता है
सिर्फ़ आज़ार उठाने से कहाँ बनता है
मुझ सा उस्लूब ज़माने से कहाँ बनता है
आँख को काट के कुछ नोक-पलक सीधी की
ज़ाविया सीध में आने से कहाँ बनता है
कुछ न कुछ इस में हक़ीक़त भी छिपी होती है
वाक़िआ बात बनाने से कहाँ बनता है
हुस्न-ए-यूसुफ़ सी कोई जिंस भी रक्खो इस में
वर्ना बाज़ार सजाने से कहाँ बनता है
इस में कुछ वहशत-ए-दिल भी तो रखी जाती है
बाग़ बस फूल उगाने से कहाँ बनता है
रास्ता बनता है तश्कील-ए-नज़र से 'बाबर'
ख़ाक की ख़ाक उड़ाने से कहाँ बनता है
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