किस क़दर गुनाहों के मुर्तकिब हुए हैं हम
जो सुकून लुटता है बार बार इस घर का
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एक दर्द की लज़्ज़त बरक़रार रखने को
इस हसीन मंज़र से दुख कई उभरने हैं
ज़हर में बुझे सारे तीर हैं कमानों पर
ये कमाल भी तो कम नहीं तिरा
और ही कहीं ठहरे और ही कहीं पहुँचे
मौत सी ख़मोशी जब उन लबों पे तारी की
हिज्र की मसाफ़त में साथ तू रहा हर दम
ऐ ख़ुदा भरम रखना बरक़रार इस घर का
कम ज़रा न होने दी एक लफ़्ज़ की हुरमत