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ज़ब्त ने भींचा तो आ'साब की चीख़ें निकलीं - इकराम आज़म कविता - Darsaal

ज़ब्त ने भींचा तो आ'साब की चीख़ें निकलीं

ज़ब्त ने भींचा तो आ'साब की चीख़ें निकलीं

हौसला टूटा तो अहबाब की चीख़ें निकलीं

वहशतें ऐसी अलमनाक नताएज में मिलीं

जिन के इम्कान पे अस्बाब की चीख़ें निकलीं

उस से फ़िरऔन के अख़्लाक़ ने माँगी है पनाह

उस से शद्दाद के आदाब की चीख़ें निकलीं

डूबने वाले ने किस इश्क़ से तन पेश किया

शिद्दत-ए-वस्ल से गिर्दाब की चीख़ें निकलीं

ऐसे गुफ़्तार ने किरदार की ख़िलअत नोची

माथे लिक्खे हुए अलक़ाब की चीख़ें निकलीं

जो न लाई गई उस ताब की चीख़ें निकलीं

मुँह पे पड़ते हुए तेज़ाब की चीख़ें निकलीं

लफ़्ज़ उभरे तो समावात के कंगरे डोले

और जब डूबे तो मेहराब की चीख़ें निकलीं

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