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हर राहत-ए-जाँ लम्हे से उफ़्ताद की ज़िद है - इकराम आज़म कविता - Darsaal

हर राहत-ए-जाँ लम्हे से उफ़्ताद की ज़िद है

हर राहत-ए-जाँ लम्हे से उफ़्ताद की ज़िद है

बेदाद ज़माना भी किसी दाद की ज़िद है

हर ख़ैर किसी शर से बक़ा-याब हुई है

ये हुस्न-ए-तआ'दुल भी तो अज़दाद की ज़िद है

अब आँखें भला किस तरह तक़्सीम करे माँ

दीवारें खड़ी करना तो औलाद की ज़िद है

गिर्या नहीं माक़ूल ब-याद-ए-कस-ए-रफ़्ता

लेकिन ये तमाशा दिल-ए-नाशाद की ज़िद है

मैं रास्ता भूला हुआ प्यादा हूँ मुझे क्या

रहबर को अगर जादा-ए-बर्बाद की ज़िद है

मैं ख़ुद से निभाने का रवादार नहीं था

ये पहली मोहब्बत मिरे हम-ज़ाद की ज़िद है

हैं फ़िक्र के आसार ख़ुदाओं की जबीं पर

इक अब्द-ए-ज़ियाँ-कार को इल्हाद की ज़िद है

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