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टीपू-सुल्तान - इज्तिबा रिज़वी कविता - Darsaal

टीपू-सुल्तान

नज़र से आज जो गुज़री हैं चंद तस्वीरें

वो दिल पे नक़्श हैं जैसे लहू की तहरीरें

बसी है जंग-ए-सिरंगा-पटाम आँखों में

किसी शहीद पे साया किए हैं शमशीरें

ग़ुलाम क़ौम तुझे कुछ हया भी आती है

हैं तेरे चाँद ये ख़ाक-अफ़गनी की तदबीरें

तिरा चराग़ सर-ए-शाम बुझ गया लेकिन

सहर के भेस में फैलेंगी उस की तनवीरें

मिरे शहीद तिरे नाम-ए-पाक से क़ौमें

करेंगी आया-ए-हुब्ब-ए-वतन की तफ़्सीरें

पयाम-ए-सई-ए-सर-अफ़राज़ी-ए-वतन है तू

शहीद-ओ-ग़ाज़ी-ओ-जर्रार-ओ-सफ़-शिकन है तू

सियासत-ए-वतनी की फ़ज़ा थी ज़हर-आलूद

हवा-ए-ग़र्ब थी ना-साज़गार-ओ-ना-मसऊद

सबाह-ए-दौलत-ए-तैमूरिया की आई थी शाम

पड़ा था नय्यर-ए-इक़बाल-ए-हिन्द सर-ब-सुजूद

गुलों को लोरियाँ देता था ए'तिबार-ए-बहार

चमन में सब्ज़ा-ए-बेगाना पा रहा था नुमूद

है तेरे बा'द तिरी याद इफ़्तिख़ार-ए-वतन

तिरा मज़ार है शम-ए-सर-ए-मज़ार-ए-वतन

पुकारती हैं सिरंगा-पटम की दीवारें

कि हम को याद हैं वो गोलियों की बौछारें

दहन कुशादा हैं चोटों के घाव क्या मा'लूम

ये कब हमीयत-ए-हुब्ब-ए-वतन को ललकारें

शहीद-ए-ज़िंदा-ए-जावेद हैं वही सावंत

जो नाम-ए-पाक-ए-वतन पर लड़ें मरें मारें

इस एक जान-ए-गिरामी पे लाख जाँ सदक़े

इस एक मौत पे सौ उम्र-ए-जावेदाँ सदक़े

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