ले जाए जहाँ चाहे हवा हम को उड़ा कर
टूटे हुए पत्तों की हिकायत ही अलग है
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छोड़ा न मुझे दिल ने मिरी जान कहीं का
दिन में आने लगे हैं ख़्वाब मुझे
मुज़्तरिब आप के बिना है जी
सख़्त-जानी की बदौलत अब भी हम हैं ताज़ा-दम
बे-सबब 'राग़िब' तड़प उठता है दिल
इंकार ही कर दीजिए इक़रार नहीं तो
अच्छे दिनों की आस लगा कर मैं ने ख़ुद को रोका है
क्या बताऊँ कि कितनी शिद्दत से
दिल से जब आह निकल जाएगी
दिल में कुछ भी तो न रह जाएगा
तर्क-ए-तअल्लुक़ात नहीं चाहता था मैं
जी चाहता है जीना जज़्बात के मुताबिक़