एक मौसम की कसक है दिल में दफ़्न
मीठा मीठा दर्द सा है मुस्तक़िल
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राय उस पर मत करो क़ाएम कोई
तर्क-ए-तअल्लुक़ात नहीं चाहता था मैं
तक़दीर-ए-वफ़ा का फूट जाना
फिर उठाया जाऊँगा मिट्टी में मिल जाने के बाद
दिन में आने लगे हैं ख़्वाब मुझे
दिल में कुछ भी तो न रह जाएगा
इंकार ही कर दीजिए इक़रार नहीं तो
इक बड़ी जंग लड़ रहा हूँ
जी चाहता है जीना जज़्बात के मुताबिक़
क्या बताऊँ दिल में किस की याद का
ले जाए जहाँ चाहे हवा हम को उड़ा कर
दिल से जब आह निकल जाएगी