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मुज़्तरिब आप के बिना है जी - इफ़्तिख़ार राग़िब कविता - Darsaal

मुज़्तरिब आप के बिना है जी

मुज़्तरिब आप के बिना है जी

ये मोहब्बत भी क्या बला है जी

जी रहा हूँ मैं कितना घुट घुट कर

ये मिरा जी ही जानता है जी

मेरे सीने में जो धड़कता है

मेरा दिल है कि आप का है जी

आप इस को बुरा समझते हैं

अपना अपना मुशाहिदा है जी

इतने मासूम आप मत बनिए

आप लोगों को सब पता है जी

क्या बताऊँ कि कितनी शिद्दत से

तुम से मिलने को चाहता है जी

चंद यादें हैं चंद सपने हैं

अपने हिस्से में और क्या है जी

अहल-ए-फ़ुर्क़त की ज़िंदगी 'राग़िब'

ज़िंदगी है कि इक सज़ा है जी

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