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इंकार ही कर दीजिए इक़रार नहीं तो - इफ़्तिख़ार राग़िब कविता - Darsaal

इंकार ही कर दीजिए इक़रार नहीं तो

इंकार ही कर दीजिए इक़रार नहीं तो

उलझन ही में मर जाएगा बीमार नहीं तो

लगता है कि पिंजरे में हूँ दुनिया में नहीं हूँ

दो रोज़ से देखा कोई अख़बार नहीं तो

दुनिया हमें नाबूद ही कर डालेगी इक दिन

हम होंगे अगर अब भी ख़बर-दार नहीं तो

कुछ तो रहे अस्लाफ़ की तहज़ीब की ख़ुश्बू

टोपी ही लगा लीजिए दस्तार नहीं तो

हम बरसर-ए-पैकार सितमगर से हमेशा

रखते हैं क़लम हाथ में तलवार नहीं तो

भाई को है भाई पे भरोसा तो भला है

आँगन में भी उठ जाएगी दीवार नहीं तो

बे-सूद हर इक क़ौल हर इक शेर है 'राग़िब'

गर उस के मुआफ़िक़ तिरा किरदार नहीं तो

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