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इक बड़ी जंग लड़ रहा हूँ - इफ़्तिख़ार राग़िब कविता - Darsaal

इक बड़ी जंग लड़ रहा हूँ

इक बड़ी जंग लड़ रहा हूँ मैं

हँस के तुझ से बिछड़ रहा हूँ मैं

जैसे तुम ने तो कुछ किया ही नहीं

सारे फ़ित्ने की जड़ रहा हूँ मैं

एक तेरे लिए रफ़ीक़-ए-दिल

इक जहाँ से झगड़ रहा हूँ मैं

ज़िंदगानी मिरी सँवर जाती

गर समझता, बिगड़ रहा हूँ मैं

किस की ख़ातिर ग़ज़ल की चादर पर

गौहर-ए-फ़िक्र जुड़ रहा हूँ मैं

कोई चश्मा कभी तो फूटेगा

अपनी एड़ी रगड़ रहा हूँ मैं

आप-अपना हरीफ़ हूँ 'राग़िब'

आप-अपने से लड़ रहा हूँ मैं

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