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अच्छे दिनों की आस लगा कर मैं ने ख़ुद को रोका है - इफ़्तिख़ार राग़िब कविता - Darsaal

अच्छे दिनों की आस लगा कर मैं ने ख़ुद को रोका है

अच्छे दिनों की आस लगा कर मैं ने ख़ुद को रोका है

कैसे कैसे ख़्वाब दिखा कर मैं ने ख़ुद को रोका है

मैं ने ख़ुद को रोका है जज़्बात की रौ में बहने से

दिल में सौ अरमान दबा कर मैं ने ख़ुद को रोका है

फ़ुर्क़त के मौसम में कैसे ज़िंदा हूँ तुम क्या जानो

कैसे इस दिल को समझा कर मैं ने ख़ुद को रोका है

छोड़ के सब कुछ तुम से मिलने आ जाना दुश्वार नहीं

मुस्तक़बिल का ख़ौफ़ दिला कर मैं ने ख़ुद को रोका है

कटते कहाँ हैं हिज्र के लम्हे फिर भी एक ज़माने से

तेरी यादों से बहला कर मैं ने ख़ुद को रोका है

वापस जाने के सब रस्ते मैं ने ख़ुद मसदूद किए

कश्ती और पतवार जला कर मैं ने ख़ुद को रोका है

जब भी मैं ने चाहा 'राग़िब' दुश्मन पर यलग़ार करूँ

ख़ुद को अपने सामने पा कर मैं ने ख़ुद को रोका है

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