वो मिला मुझ को न जाने ख़ोल कैसा ओढ़ कर
वो मिला मुझ को न जाने ख़ोल कैसा ओढ़ कर
रौशनी गुम हो गई अपना ही साया ओढ़ कर
नींद से बोझ हैं पत्ते ऊँघते से पेड़ हैं
शहर सोया है ख़मोशी का लबादा ओढ़ कर
ढूँढता फिरता था मैं हर शख़्स के असली नुक़ूश
लोग मिलते थे मुझे चेहरे पे चेहरा ओढ़ कर
मुंजमिद सा हो गया हूँ ख़ुनकी-ए-एहसास से
धूप भी निकली है लेकिन तन पे कपड़ा ओढ़ कर
रंग सारे धो गया है रात का बादल 'नसीम'
और घर नंगे हुए पानी बरसता ओढ़ कर
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