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मिरे नुक़ूश तिरे ज़ेहन से मिटा देगा - इफ़्तिख़ार नसीम कविता - Darsaal

मिरे नुक़ूश तिरे ज़ेहन से मिटा देगा

मिरे नुक़ूश तिरे ज़ेहन से मिटा देगा

मिरा सफ़र ही मिरे फ़ासले बढ़ा देगा

अँधेरी रात है इस तुंद-ख़ू से मत कहना

वो रौशनी के लिए अपना घर जला देगा

मैं उस का सब से हूँ प्यारा मगर बिछड़ते ही

वो सब को याद करेगा मुझे भुला देगा

बना हुआ हूँ मैं मुजरिम बग़ैर जुर्म किए

अब और क्या मिरा मुंसिफ़ मुझे सज़ा देगा

उगाया जिस ने है बंजर ज़मीं में तुझ को 'नसीम'

है क्या बईद कि वो फूल भी खिला देगा

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