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चाँद फिर तारों की उजली रेज़गारी दे गया - इफ़्तिख़ार नसीम कविता - Darsaal

चाँद फिर तारों की उजली रेज़गारी दे गया

चाँद फिर तारों की उजली रेज़गारी दे गया

रात को ये भीक कैसी ख़ुद भिकारी दे गया

टाँकती फिरती हैं किरनें बादलों की शाल पर

वो हवा के हाथ में गोटा कनारी दे गया

कर गया है दिल को हर इक वाहिमे से बे-नियाज़

रूह को लेकिन अजब सी बे-क़रारी दे गया

शोर करते हैं परिंदे पेड़ कटता देख कर

शहर के दस्त-ए-हवस को कौन आरी दे गया

उस ने घायल भी किया तो कैसे पत्थर से 'नसीम'

फूल का तोहफ़ा मुझे मेरा शिकारी दे गया

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