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बन गया है जिस्म गुज़रे क़ाफ़िलों की गर्द सा - इफ़्तिख़ार नसीम कविता - Darsaal

बन गया है जिस्म गुज़रे क़ाफ़िलों की गर्द सा

बन गया है जिस्म गुज़रे क़ाफ़िलों की गर्द सा

कितना वीराँ कर गया मुझ को मिरा हमदर्द सा

क्या अभी तक उस का रस्ता रोकती है कोई सोच

मेरे हाथों में है उस का हाथ लेकिन सर्द सा

इस तरह घुल-मिल गया आ कर नए माहौल में

वो भी अब लगता है मेरे घर का ही इक फ़र्द सा

जज़्ब था जैसे कोई सूरज ही उस के जिस्म में

दूर से वो संग लगता था ब-ज़ाहिर सर्द सा

आज तक आँखों में है मंज़र बिछड़ने का 'नसीम'

पैरहन मेला सा उस का और चेहरा ज़र्द सा

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