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अपनी मजबूरी बताता रहा रो कर मुझ को - इफ़्तिख़ार नसीम कविता - Darsaal

अपनी मजबूरी बताता रहा रो कर मुझ को

अपनी मजबूरी बताता रहा रो कर मुझ को

वो मिला भी तो किसी और का हो कर मुझ को

मैं ख़ुदा तो नहीं जो उस को दिखाई न दिया

ढूँढता मेरा पुजारी कभी खो कर मुझ को

पा लिया जिस ने तह-ए-आब भी अपना साहिल

मुतमइन था मिरा तूफ़ान डुबो कर मुझ को

रेग-ए-साहिल पे लिखी वक़्त की तहरीर हूँ मैं

मौज आए तो चली जाएगी धो कर मुझ को

नींद ही जैसे कोई कुंज-ए-अमाँ है अब तो

चैन मिलता है बहुत देर से सो कर मुझ को

फ़स्ल-ए-गुल हो तो निकाले मुझे इस बर्ज़ख़ से

भूल जाए न तह-ए-संग वो बो कर मुझ को

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