मिरे वजूद के अंदर मुझे तलाश न कर
कि इस मकान में अक्सर रहा नहीं हूँ मैं
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यही चराग़ है सब कुछ कि दिल कहें जिस को
सवाद-ए-हिज्र में रक्खा हुआ दिया हूँ मैं
मैं तुम को ख़ुद से जुदा कर के किस तरह देखूँ
अभी छुटी नहीं जन्नत की धूल पाँव से
किसी सबब से अगर बोलता नहीं हूँ मैं
मोहब्बत और इबादत में फ़र्क़ तो है नाँ
इक ख़ला, एक ला-इंतिहा और मैं
रुख़्सत-ए-यार का मज़मून ब-मुश्किल बाँधा
कभी कभी तो ये हालत भी की मोहब्बत ने
मैं भी बे-अंत हूँ और तू भी है गहरा सहरा