इक ख़ला, एक ला-इंतिहा और मैं
कितने तन्हा हैं मेरा ख़ुदा और मैं
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तुम्हें भी चाहा, ज़माने से भी वफ़ा की थी
कई दिनों से मिरे साथ साथ चलती है
सवाद-ए-हिज्र में रक्खा हुआ दिया हूँ मैं
घेर लेती है कोई ज़ुल्फ़, कोई बू-ए-बदन
आँख झपकी थी बस इक लम्हे को और इस के ब'अद
रुख़्सत-ए-यार का मज़मून ब-मुश्किल बाँधा
तू मुझ से मेरे ज़मानों का पूछती है तो सुन!
हम ने उस चेहरे को बाँधा नहीं महताब-मिसाल
मैं भी बे-अंत हूँ और तू भी है गहरा सहरा
कभी कभी तो ये हालत भी की मोहब्बत ने
यही चराग़ है सब कुछ कि दिल कहें जिस को
किसी सबब से अगर बोलता नहीं हूँ मैं