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कभी कभी तो ये हालत भी की मोहब्बत ने - इफ़्तिख़ार मुग़ल कविता - Darsaal

कभी कभी तो ये हालत भी की मोहब्बत ने

कभी कभी तो ये हालत भी की मोहब्बत ने

निढाल कर दिया मुझ को तिरी मोहब्बत ने

तिरी ये पहली मोहब्बत है तुझ को क्या मालूम

घुला दिया मुझे इस आख़िरी मोहब्बत ने

वो यूँ भी ख़ैर से सरमा का चाँद थी लेकिन

उसे उजाल दिया और भी मोहब्बत ने

मुझे ख़ुदा ने अधूरा ही छोड़ना था मगर

मुझे बना दिया इक शख़्स की मोहब्बत ने

ये तुम जो मेरे लिए ख़्वाब छोड़ आई हो

तुम्हें जगाया तो होगा मिरी मोहब्बत ने

मैं जिस को पहले पहल दिल-लगी समझता था

मुझे तो मार दिया इस नई मोहब्बत ने

ये अपने अपने नसीबों की बात है वर्ना

किसी को 'मीर' बनाया इसी मोहब्बत ने

ये जिस्म-ओ-जान ये नाम-ओ-नुमूद हस्ब-ओ-नसब

ये सारे वहम थे इज़्ज़त तो दी मोहब्बत ने

मोहब्बत और इबादत में फ़र्क़ तो है नाँ

सो छीन ली है तिरी दोस्ती मोहब्बत ने

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