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चूमता पानी, पानी पानी - इफ़्तेख़ार जालिब कविता - Darsaal

चूमता पानी, पानी पानी

फटते इरादे यक़ीन मुसीबत पाँव धुलाए

चश्मा कि होंट शबीह-ए-लुआब मयस्सर रात अनोखा सानेहा हो जाएगा

मैले कँवल के फूल डुबोता लिपट लिपट कर चूमता पानी, पानी पानी

नदामत से मग़्लूब ख़राबी: मद्द-ओ-जज़्र मौजूद तबीअत का तख़रीब तमाशा

मुराजअत आँखों से ओझल छूती बहाती बे-तरतीब अज़ाब है

हरी-भरी बेचारगी कैसे? अक्स-ए-शबाहत पंखुड़ियों का

वो जो इरादे की तरकीब नहीं पा सकता लरज़ रहा है

फूल तशद्दुद ख़ौफ़ में ग़र्क़-ए-हरारत डूबती उभरती पतियाँ

केंचुली उतरे तो बात बने मैं कह दूँ? कर गुज़रूँ?

आसाब तशन्नुज फैलती बे-रुख़ बातों की तरदीद-ए-क़यामत कर भी चुको

ये हादसा दायरा सा ये सिमटता फैलता सरपट भागते क़दमों की लू पर जल-भुन राख हो

शोला थिरकता रीढ़ की हड्डी से मग़्ज़ के हुक्म-ए-सलासिल चाटता

दिन पाने की लग़्ज़िश कर ले कर ही ले मजबूरी आ लेती है

चौ-गर्द की गर्दिश राख क़रीने की यकजाई तमसील-ए-ब-ज़ाहिर की ताईद में रखती है

उँगलियाँ उँगलियाँ, बातें बातें, पसीना पसीना, बाक़ी बाक़ी

और बेचारगी

ताहम तो ये तयक़्क़ुन तर्क-ए-तग़ाफ़ुल ठहरे

क़ौल क़यामत आने के जतन करे तक़रीब-ए-तमाशा ढूँडे

छुपी रहे, तड़पाए, तड़पे

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