रात भर दर्द की बरसात में धोई हुई सुब्ह
रात भर दर्द की बरसात में धोई हुई सुब्ह
सब की आँखों में है जैसे कोई रोई हुई सुब्ह
पाक जज़्बों के समुंदर से निथारा हुआ नूर
नेक सोचों की बिलोनी से बिलोई हुई सुब्ह
फूल बे-रंग फ़ज़ा ज़र्द परिंदे ख़ामोश
शाम की गोद में थक-हार के सोई हुई सुब्ह
कौन देखेगा मिरे अश्क को सूरज बनते
कौन काटेगा मिरी आँख की बोई हुई सुब्ह
यूँ भी लौटेंगे वतन को कभी हम हिज्र-नसीब
ढूँढती होगी हमें भी कोई खोई हुई सुब्ह
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